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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

मैंने जान-बूझकर किया है विषपान


पिछले कई सालों से, देश के बहुत सारे लोगों से, इस विषय पर मेरी बातचीत हुई है। लेकिन यह जिक्र किसी ने नहीं किया कि बंगलादेश में एक समस्या है-पीने के पानी की समस्या! आर्सेनिक की समस्या! आर्सेनिक की समस्या के बारे में मैंने खुद ही पूछा। लेकिन कोई भी इस बातचीत के लिए राजी नहीं हुआ। लोगों ने इस विषय को बिल्कुल तवज्जो ही नहीं दी। पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज़रूरत से ज़्यादा मात्रा में मिली है। इस बारे में लोग-बाग को ख़बर नहीं है। ऐसा नहीं है, ख़बर उन्हें है, लेकिन कोई इसे समस्या ही नहीं मानता। बहुत से लोगों ने डेंगू का जिक्र छेड़ दिया। उन लोगों का कहना है कि डेंगू वेहद जानलेवा है! मैंने यह भी देखा है कि डेंगू के खौफ से लोग-बाग तटस्थ हैं। डेंगू के मामले में लोग जागरूक हैं। आर्सेनिक के मामले में खामोश क्यों हैं? यह सवाल बार-बार मेरे मन में उठा है। बाद में मुझे इसका जवाब भी मिल गया। जवाब है, डेंगू से मरने में इंसान को पूरे 10 दिन लगते हैं। आर्सेनिक से मरने में भी 10 वर्ष लगते हैं। यहाँ दिन और साल का फ़र्क है। सो अभी करीब का मसला सम्हालो। बाद का बाद में देखा जाएगा। समूचे तन-बदन को जहरीले सॉप ने जकड़ रखा है और सामने हिंम्र बाघ! खेर, बाघ सामने है, रहने दो, पहले साँप के दंश से तो बच लूँ। साँप से बच निकलने के बाद, बनैली भैंस द्वारा खदेड़े जाना। उससे बचने के लिए गिरते-पड़ते दौड़ना पड़ता है। जब किसी तरह इससे भी बच निकले, तो सामने भूखे सिंहों का झुंड! अब, सिंह से बचो। ऐसे में बाघ के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है? इंसान को वर्तमान समस्या का समाधान करके ही एक-एक दिन गुज़ारना होता है। सामने समस्याओं का इतना विशाल पहाड़ होता है कि करीबी भविष्य में आर्सेनिक की समस्या की वजह से सैकड़ों तरह के असाध्य रोग हो सकते हैं। उस रोग से मौत भी हो सकती है। इस बारे में फिक्र करने का वक्त, लोगों के पास नहीं है। मौत की सिर्फ एक ही वजह नहीं होती। लोग-बाग हज़ारहा वजह साथ लिए हर दिन जिंदा रहते हैं। एक दिन ज़िंदा रहना, कई मौतों को लाँघ जाता है। अगर यही हालत है, तो आर्सेनिक की फिक्र करना, लोगों के लिए विलासिता के अलावा और कुछ नहीं है।

दुनिया में बंगलादेश ही एकमात्र ऐसा देश है जो आर्सेनिक का सर्वाधिक शिकार है। बंगलादेश की माटी के जिस स्तर पर आर्सेनिक मौजूद है, दुनिया के और किसी भी देश की माटी के उस स्तर पर आर्सेनिक नहीं होता। बंगलादेश अनन्य है। ढेरों मामले में यह देश अनन्य है। जिसे रोग है, वह है अनजान, अड़ोसी-पड़ोसी की नींद हराम! बंगलादेश में आर्सेनिक रोग को लेकर कोई सिर-दर्द नहीं है। सिर-दर्द तो भू-तत्त्वविद, यूनिसेफ और हू को है! आर्सेनिक की वजह से त्वचा के रोग फैल रहे हैं। दस वर्ष बाद, फुसफुस, मूत्र-थैली, सीने में कर्कट रोग शुरू हो जाएगा। करोड़ों-करोड़ों लोग यह रोग झेलेंगे, लाखों-लाखों लोग दम तोड़ देंगे। इंसान के लिए यह कोई बड़ी धमकी नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि बंगलादेश के लोग मृत्यु-भय, मृत्यु-शोक जय कर चुके हैं। यह जय, देश-जय से कहीं ज़्यादा विशाल है। पीने के पानी में ज़हर मौजूद है। यह सुनकर किसी को भी आतंकित नहीं होना चाहिए। बंगाली की साहित्य-संस्कृति में ही विषपान करके, मृत्यु-वरन् करने को, महान आत्म त्याग के तौर पर मर्यादा दी गई है। पुराने जमाने के रवीन्द्रनाथ से लेकर, आधुनिक जमाने के सुनील तक ने, विषपान पर कविताएँ लिखी हैं-'मैंने जानबूझकर किया विषपान! मैं ओठों को दूंगा अंगूर की छुअन विषपान से करूँगा मृत्यु-वरण!'

बंगलादेश में कैंसर रोगियों की संख्या प्रचुर है! जब मैं चिकित्सा महाविद्यालय की छात्रा थी, कैंसर रोग के इतने मरीज नहीं देखे थे। आर्सेनिक की वजह से कैंसर होने के अलावा, बंगलादेश में कैंसर फैलने के और भी बहुत से कारण हैं। कैंसर होने के सैकड़ों उपकरण, चारों तरफ फैले-बिखरे हुए हैं। ढेरों मामूली ज़ख्म या छोटे-से दाने, इलाज के अभाव में पड़े रहते हैं और बाद में कैंसर का रूप ले लेते हैं। इलाज कराने में रुपये लगते हैं, दवाएँ खरीदने में रुपये लगते हैं। जो लोग रोज कुआँ खोदते हैं, रोज़ पानी पीते हैं, उनको इलाज कराने की न तो फुर्सत होती है, न औकात। बिल्कुल मरणासन्न न होने तक, कोई अस्पताल नहीं जाता। औरतों की हालत और करुण है औरतें मरणासन्न भी हों तो कोई उन्हें अस्पताल ले जाने की कोशिश नहीं करता। आम मध्यवित्त घरों की औरतें बीमार हों तो परिवारवाले उसे अस्पताल ले जाना ज़रूरी नहीं समझते। इसलिए अस्पतालों में मर्दो रोगियों की तुलना में महिला रोगियों की संख्या काफी कम होती है। अपने ही परिवार की एक मिसाल दूँ! मेरी अम्मी की खाद्यनली में एक छोटा-सा दाना जैसा कुछ हुआ था। अम्मी ने पूरे बीस सालों तक इसे पाले हुए, अपनी जिंदगी गुज़ार दी। लगातार खून भरता रहा, उन्होंने काफी झेला भी! मेरे अब्बू खुद भी डॉक्टर थे, लेकिन उन्होंने भी किसी दिन माँ . की उस बीमारी का इलाज कराने की ज़रूरत नहीं समझी! वही छोटा-सा दाना धीरे-धीरे कैंसर बन गया। आँत से शुरू होकर धीरे-धीरे शरीर के बाकी अंगों में भी फैल गया।

जब अम्मी को अस्पताल ले जाया गया। काफी देर हो चुकी थी। निरोग होने की कोई भी राह बाकी नहीं बची थी। जब किसी डॉक्टर के घर का यह हाल है, तब अन्य आम घरों में किस किस्म की जागरूकता विराज कर रही है, इसका अंदाज़ा मैं लगा सकती हूँ। घर के सभी लोगों का जूठा-कुठा खाते-खाते, अम्मी ने यह रोग मोल ले लिया था। औरतें तो गृहस्थी में इसी किस्म की दासी होती हैं। उन्हें जूठा-कूठा खाकर ही ग़जारा करना पड़ता है। बंगलादेश की कितनी औरतों की आँत में कैंसर रोग ने घर बना लिया है। इसका कोई हिसाब है? कौंन करे हिसाब? किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं है। इस बारे में सोच-फिक्र करना भी वक्त की बर्बादी है।

आजकल आर्सेनिक, सिर्फ पानी तक ही सीमाबद्ध नहीं है। अब यह धान-चावल-साग-सब्जी तक फैल चुका है। दूध में भी, बस धुलने-मिलने ही वाला है। इसकी रोक-थाम का जितना भर इंतज़ाम किया गया है उसका कोई असर नहीं हुआ है। सभी लोगों के लिए पीने के विशुद्ध पानी का इंतज़ाम अभी तक नहीं किया जा सका है। अनगिनत अंचलों के लोग, अभी तक ज़रूरत से ज़्यादा मात्रा में आर्सेनिक-मिला पानी पी रहे हैं। बंगलादेश में जब सभी कुछ मात्रा से ज़्यादा है, तब आर्सेनिक ही भला मात्रा से ज़्यादा क्यों न हो? ज़रूरत से ज़्यादा गरीबी, ज़रूरत से ज़्यादा जनसंख्या, ज़रूरत से ज़्यादा बाढ़, ज़रूरत से ज़्यादा खून, बलात्कार, अन्याय-अत्याचार-विषमता, ज़रूरत से ज़्यादा दहशतगर्दी, ज़रूरत से ज़्यादा दुर्नीति? राजनीतिज्ञों का ज़रूरत से ज़्यादा झूठ-सभी सीमा से बाहर! दुनिया में ऐसा कोई एक भी देश नहीं है, जहाँ इतनी ज़रूरत से ज़्यादा बुरी-बुरी चीजें मौजूद हैं। लेकिन सभी नेतिवाचक नहीं हैं। बंगलादेश में एक अदद इतिवाचक मामला भी है। वह है-सुख ! लंदन के एक अर्थनीति कॉलेज के पर्यवेक्षण में पता चला है कि बंगलादेश के लोग दुनिया के सबसे सुखी जीव हैं। इतनी सारी बुराइयों के साथ, इंसान अगर खुश रह सकता है, तब फिक्र करने की क्या बात है? एक बार मैं ढाका की 'तेज़बस्ती' में गई थी। वहाँ गंदे जलाशय के ऊपर, बाँस गाड़कर, फटे-चिथड़े प्लास्टिक से बनाई हुई झोंपड़-झुग्गी! उन झुग्गियों के अंदर से तैरकर आती हुई रुनझुनाती हँसी खिलखिलाहट। मैं वे आवाजें सुनते-सुनने आगे बढ़ती जा रही थी। मारे बदबू के मेरे भीतर की नसें तक में मिचली उमड़ती हुई! वहाँ से गुज़रते ही, बस्ती के असंख्य औरत-मर्द-बच्चों के चेहरों पर मेरी नज़र पड़ी! सबके चेहरे खुशी से डगमग! वे लोग सुखी जीव थे। क्योंकि उन्हें जानकारी नहीं थी कि इंसान के तौर पर उनका क्या-क्या प्राप्य है और क्या-क्या उन्हें नहीं मिल रहा है! बंगलादेश के अधिकांश लोगों को इसका अहसास नहीं है, इसलिए वे लोग आराम से रह सकते हैं! शिक्षा, चिकित्सा, रोटी-कपड़ा-मकान का अधिकार, जैसे धानमंडी, गुलशन, बनानी, वारिधारा के लोगों को है, उसी तरह उन लोगों को भी है। यह हकीक़त वे लोग नहीं जानते। राजनीतिज्ञ और धर्म-विशेषज्ञों से उन लोगों को एक ही शिक्षा मिली है कि जितनी भी दुर्गति-दुर्भोग है, वह सब अल्लाह ने दिया है। इन सबके जरिए अल्लाहताला हमारे ईमान का इम्तहान लेते हैं। असमानता की इस जमीन पर जो कुछ भी मौजूद है, सबके सष्टिकर्ता अल्लाह हैं! वंगलादेश की माटी, माटी तले का आर्सेनिक सबकुछ अल्लाहताला की सृष्टि है। विस्मिल्लाह कहकर यह पानी पीने से कोई असुविधा नहीं होती। ज़हर मिटाने के लिए विस्मिल्लाह' शब्द ही काफी है। इसके बाद भी अगर कोई रोग धर दबोचे, तो कोई बात नहीं। रोग भी तो अल्लाह का ही दान है। अल्लाह ही अगर चाहता है कि उसके वंदे अभाव भोगें, तो किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए।

आर्सेनिक-मुक्त पानी का इंतजाम करना, ऐसा कोई मुश्किल काम नहीं है। दुनिया के अनेक देशों के पानी में आर्सेनिक होने का पता चलते ही, फौरन उचित कदम उठाया गया और उन देशों के पानी को आर्सेनिक मुक्त कर दिया गया। और किसी देश के लोगों में जान-बूझकर जहर पीने की रूमानियत नहीं है, इसलिए विशुद्ध पानी के मामले में वे लोग सजग रहते हैं। सेहतमंद रहकर भला कौन नहीं जीना चाहता? बंगलादेश के नागरिक समाज में शारीरिक अस्वस्थता एक किस्म के उत्सव जैसी होती है। यूरोप के देशों में मैंने देखा है कि कोई बंदा बीमार होता है, तो वह किसी से भेंट नहीं करता। अगर कोई खुद उसके घर आना चाहता है, तो वह कह देता है कि 'मैं बीमार हैं. अभी न आएँ। जब मैं ठीक हो जाऊँ, तब आएँ।' जितने दिनों लोग बीमार होते हैं, अकेले रहते हैं। स्वस्थ होने के बाद ही वे लोग स्वाभाविक सामाजिक जीवन की तरफ लौटते हैं। लेकिन बंगलादेश में बीमार की खैरियत पूछने जाना बहत बड़ा सामाजिक कर्तव्य है। हमारे वहाँ के घर में भी बंधु-बांधव और नाते-रिश्तेदारों की उतनी भीड़ कभी नहीं होती थी, जितनी उस वक्त, जब घर में कोई बीमार होता है। कोई दोस्त या परिचित बीमार होता था, तो हम भी उसे देखने जाते थे। बीमार होने का मतलब है, एक तरह से हीरो बन जाना। जो भी बीमार होता था, उसके लिए आदर-जतन, अच्छा-अच्छा खाना, अच्छा व्यवहार-सबकुछ की धूम पड़ जाती थी। बचपन में मैं अल्लाह से दुआ माँगती थी कि हे भगवान, मुझे बुखार चढ़ जाए। बुखार चढ़ जाए तो मैं आराम से लेटी रहूँगी। सभी लोग मेरा लाड़-प्यार करेंगे, भर-भर ठोंगे मेरे लिए अंगूर सेब आएँगे, मेरी खैरियत पूछने के लिए, मेरे आस-पास कितने-कितने लोगों की भीड़ लगी रहेगी। बीमारी के दौरान मैं बदस्तूर शहज़ादी की तरह रहती थी। ठीक होते ही मुझे दुबारा पहले की तरह, पीठ पर घूसे, गाल पर तमाचे, सिर पर चपत वगैरह की स्थिति में दुबारा लौटना होता था। मेरा सच ही मूड खराब हो जाता था।

मेरे रिश्तेदारों में कुल उन्नीस जन ने मुहब्बत की और ज़हर खाया। लेकिन अंत में मरा कोई नहीं। जहर खाने के बाद प्रेमी या प्रेमिका के तौर पर उनका मोल काफी बढ़ गया। यह जो जान-बूझकर ज़हर खाने की रीति है, यह साहित्य-संस्कृति में कोई अलग विषय नहीं है, यह समाज का ही विषय है। छोटे-बड़े सैकड़ों किस्म के दुःख में आदमी ज़हर खाता है। सिमी ने जिस वजह से ज़हर खाया, रिमी के ज़हर खाने की वह वजह नहीं भी हो सकती है। इंसान के विषाद तरह-तरह के होते हैं। कुछ लोग ज़रा-सी बात पर आहत हो जाते हैं। कुछ बहुत ज़्यादा में भी कुछ भी नहीं आता-जाता। लेकिन बंगलादेश के लोगों ने जानबूझकर, संघबद्ध तरीके से एक ही जहर पीया है। वह है-आर्सेनिक! सिर्फ इसी एक मामले में, देश में समता के भाव रहे हैं। अब तो धान में ज़हर, चावल में ज़हर! फल-फूल में ज़हर! बंगलादेश में धनी-दरिद्र का फर्क बहुत ज्यादा है, लेकिन खाद्यवस्तु में मिला हुआ ज़हर, सब मिल-बाँटकर ही खाएँगे! इंशाअल्लाह! दस साल बाद कैंसर होगा? अरे वह तो दस साल बाद, अभी तो नहीं दस साल में अभी हजारों साल बाकी हैं। बंगलादेश में, आज नौ बजे की ट्रेन, अगर अगले दिन के दो बजे आती है, तो कौन कह सकता है कि दसवाँ साल, ठीक दस साल बाद ही आ धमकेगा?



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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